कहीं तीरगी कहीं रौशनी यही इस जहाँ का निज़ाम है ये तो अपना अपना नसीब है कहीं सुब्ह तो कहीं शाम है ये मोहब्बतों का जहान है यहाँ लम्हा लम्हा है इम्तिहाँ जो न रंज-ओ-ग़म से हो आश्ना उसे दूर ही से सलाम है मुझे मय से कोई ग़रज़ नहीं मगर इतनी बात ज़रूर है जो सुरूर-ए-इश्क़ न दे सके वो शराब पीना हराम है मिरे शहर ही के वो लोग हैं मगर उन से रहिएगा बा-ख़बर वो किसी के काम न आएँगे उन्हें अपने काम से काम है जिसे आप कहते हैं लखनऊ वो सुख़नवरों का है गुल्सिताँ मिरा नाम 'प्रीता' है दोस्तो मिरा लखनऊ में क़याम है