हर क़दम पर मिरे इक ख़ंजर-ए-उर्यां निकला फिर भी मैं कूचा-ए-क़ातिल से ग़ज़ल-ख़्वाँ निकला कर गई मुझ पे वो ए'जाज़ तिरी एक नज़र जो भी निकला मिरे नज़दीक से हैराँ निकला मेरी फ़ितरत में थी पिन्हाँ वो बहार-ए-दाइम मैं बहर-रंग ब-शक्ल-ए-गुल-ए-ख़ंदाँ निकला वो बदलता रहा हर बात के इतने पहलू मुद्दआ' कोई भी हरगिज़ न नुमायाँ निकला आह इस तौर गुलिस्ताँ में लुटी फ़स्ल-ए-बहार चश्म-ए-गिर्यां से मिरी ख़ून-ए-बहाराँ निकला जाने किस ग़म ने वो तहरीक-ए-मसर्रत बख़्शी दिल-ए-ग़म-गीं से मिरे नग़्मा-ए-शादाँ निकला हरम-ओ-दैर की हर क़ैद से मुतलक़ आज़ाद मुझ सा काफ़िर ही कोई साहब-ए-ईमाँ निकला आप पर हो चुका सौ जान से क़ुर्बां लेकिन आप पर मिटने का इस दिल से न अरमाँ निकला हौसला हो तो मिरा और तआ'क़ुब कर ले तुझ से मैं तेज़ क़दम गर्दिश-ए-दौराँ निकला एक ही झोंके ने गुल कर दिए सब घर के चराग़ इस क़दर तुंद इधर से कोई तूफ़ाँ निकला सुख़न-ए-'राज़' की दी दाद किसी ने आख़िर शुक्र है बज़्म में कोई तो सुख़न-दाँ निकला