कहीं तो रोज़ ही मेले कहीं परचम उखड़ता है

कहीं तो रोज़ ही मेले कहीं परचम उखड़ता है
कहीं ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ हैं कहीं बस दम उखड़ता है

नहीं मुमकिन है कोई पेड़ यूँ जड़ छोड़ दे अपनी
अगर हो जाएगी मिट्टी ज़रा भी नम उखड़ता है

करो कोशिश भले ही लाख टूटे दिल बचाने की
मगर मौसम वही आ जाए तो हर ग़म उखड़ता है

अगर चलना है काँटों पर तो चोटों को रवाँ कर लो
दिया हो लाख ज़ख़्मों पर भले मरहम उखड़ता है

मैं छूती आसमाँ को हूँ बढ़ा देती हूँ पेंगों को
मिरी जब याद में बचपन का वो मौसम उखड़ता है

कहाँ जाऊँ मैं क्या कर लूँ समझ में कुछ नहीं आता
ज़रा सी बात पर जब भी 'रतन' हमदम उखड़ता है


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