कहिए अच्छा जो किसी से तो बुरा लगता है कलमा-ए-ख़ैर नमक-पाश ज़रा लगता है मैं नहीं जानता कोई यहाँ क्या लगता है जाने क्यों शहर तिरा शहर मिरा लगता है कुश्त-ओ-ख़ून ऐसा कि शायद न हुआ होगा कभी दुश्मन इंसान का इंसान हुआ लगता है कौन किस से है फ़ुज़ूँ ख़ल्क़ में किस तरह खुले हर हुनर-मंद यहाँ ख़ुद से सिवा लगता है होश-मंद ऐसे कहाँ के हैं ये अरबाब-ए-नशात जी का जंजाल सब उन का ही दिया लगता है ताब-ए-गोयाई रहे या न रहे आज के बाद सुन लो दो बोल कि कुछ दर्द थमा लगता है ऐसा बिखरा हूँ कि मुश्किल है सिमटना मेरा मेरे दिल में कोई काँटा सा चुभा लगता है जिस का जी चाहे वो महफ़िल की सताइश कर ले एक पर्दा सा निगाहों पे पड़ा लगता है गर्दिश-ए-पा है कि बढ़ने नहीं देती आगे तेरा 'हामिद' तिरी गलियों का गदा लगता है