कहना न माना कूचा-ए-क़ातिल में रह गया अच्छा हुआ जो दिल किसी मुश्किल में रह गया क्या पूछते हो ऐसे मुसाफ़िर की सरगुज़िश्त जिस को कि दिल भी छोड़ के मंज़िल में रह गया निकला था बन सँवर के बहुत चौदहवीं का चाँद फिर भी वो तेरे रुख़ के मुक़ाबिल में रह गया क़ातिल ने तेग़ म्यान में कुछ सोच कर रखी थोड़ा सा जब कि दम तन-ए-बिस्मिल में रह गया दिरहम मिला भी मुनइ'म-ए-कज-ख़ुल्क़ से अगर इक दाग़ बन के वो कफ़-ए-साइल में रह गया इतना बता दे उस के उठाने से फ़ाएदा तस्वीर बन के जो तिरी महफ़िल में रह गया क्या जाने बहर-ए-इश्क़ की हालत वो बद-नसीब दम तोड़ कर जो दामन-ए-साहिल में रह गया फ़िक्र उस की रंज उस का उम्मीद उस की कुछ न पूछ जो सर झुका के कूचा-ए-क़ातिल में रह गया ताबीर-ए-ख़्वाब ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल थी क्या यही 'आलिम' जकड़ के मैं जो सलासिल में रह गया