कहो दैर-ओ-हरम या नाम अपना आस्ताँ रख दो सर-ए-तस्लीम ख़म है तुम जहाँ चाहो वहाँ रख दो घटा कर क़ैद-ए-आज़ादी बढ़ा दो ग़म असीरी का क़फ़स को आशियाँ में या क़फ़स में आशियाँ रख दो तसल्ली देने वालो हम तही-दस्तान-ए-क़िस्मत हैं सर-ए-दामन जो मुमकिन हो तो दिल की धज्जियाँ रख दो ज़रूरत जान की दिल को मैं बे-परवा-ए-हस्ती हूँ जहाँ दिल है वहीं अब मेरी जान-ए-ना-तवाँ रख दो ख़ुदा कहलाओ या कुछ और सब कुछ मुझ को कहना है इधर आओ मिरे मुँह में तुम्हीं अपनी ज़बाँ रख दो वफ़ा का राज़ इस मजमे' में खोला जा नहीं सकता सिवा महशर के कोई और रोज़-ए-इम्तिहाँ रख दो मोहब्बत और तसल्ली उस पे होश-ए-ज़िंदगी 'कैफ़ी' नहीं उठता अगर काँधे से ये बार-ए-गराँ रख दो