कहता है बाग़बान लिहाज़ा न चाहिए वर्ना चमन का हाल छुपाना न चाहिए इस मशवरा के साथ कि चर्चा न चाहिए दिल कह रहा है उन पे भरोसा न चाहिए पड़ जाए ख़द्द-ओ-ख़ाल-ए-मनाज़िर पे रौशनी इतने क़रीब से भी नज़ारा न चाहिए हम ग़ौर कर रहे हैं तो महफ़िल है फ़िक्र में उठना न चाहिए कि उठाना न चाहिए दस्तूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई क़ानून ये नहीं है कि शिकवा न चाहिए तूफ़ान-ए-इंक़लाब से मायूसियों के ब'अद कश्ती पुकारती है किनारा न चाहिए गुल-हा-ए-रंग-रंग में ठनती नहीं कभी हम को भी इस लिहाज़ से झगड़ा न चाहिए कटती है आरज़ू के सहारे पे ज़िंदगी कैसे कहूँ किसी की तमन्ना न चाहिए मेरा क़ुसूर ये है कि हुब्ब-ए-वतन में 'शाद' लिखता हूँ लिख चुका हूँ जो लिखना न चाहिए