कहते हैं नाला-ए-हज़ीं सुन के सौ दिल-गुदाज़ हैं धुन के सर अगर काटना है चुन चुन के आस्तीन चढ़ाओ चुन चुन के शम-ओ-परवाना शब को थे दिल-सोज़ रह गए सुब्ह तक वो जल-भुन के घुन लगा मौत का जो आ'ज़ा में उस्तुख़्वाँ ख़ाक हो गए घुन के मैं वो नालाँ हूँ जिस के हम-साया कोसते हैं फ़ुग़ाँ मिरी सुन के कट सका कोह-ए-ग़म न आख़िर-कार कोहकन सर को रह गया धुन के नाम-आवर जो 'मीर' थे ऐ 'शाद' अब हमीं इक निशान हैं उन के