ख़लिश-ए-ख़ार हो वहशत में कि ग़म टूट पड़े पर फफूलों में इलाही न मिरे फूट पड़े दिन दोपहरे ही शफ़क़-ए-शाम जहाँ में फूले आसमाँ पर लब-ए-लालीं के अगर छूट पड़े दम निकल जाए ख़फ़ा हो के ग़म-ए-काकुल में जो पड़े हल्क़ में फंदा वो गला घूट पड़े हिज्र-ए-साक़ी में दहन से मिरे ऊच्छू हो कर जो पियूँ आब-ए-बक़ा भी वो निकल घूट पड़े हुर्मत-ए-बिंत-ए-इनब में नहीं कुछ शक ऐ 'शाद' वाइ'ज़ीं बेहुदा बकते हैं बकें छूट पड़े