कहूँ क्या इज़्तिराब-ए-दिल ज़बाँ से रहे जाते हैं सब पहलू बयाँ से उन्हें चहका रहा हूँ चाँद कह कर एवज़ लेना है मुझ को आसमाँ से हम ऐसे ना-तवाँ वो ऐसे नाज़ुक उठाए कौन पर्दा दरमियाँ से शमीम-ए-गुल ने बढ़ कर हाल मारा क़दम बाहर जो रक्खा आशियाँ से तड़प मेरी तरक़्क़ी कर रही है ज़मीं टकरा न जाए आसमाँ से ख़ुदा रक्खे चमन का फूल हो तुम हँसो खेलो नसीम-ए-बोस्ताँ से निगाह-ए-गुल से बुलबुल यूँ गिरी है गिरे जिस तरह तिनका आशियाँ से ज़मीन-ए-शेर हम करते हैं आबाद चले आते हैं मज़मूँ आसमाँ से बड़ा लंगर था शेर-ओ-शायरी का उठा क्यूँ-कर 'जलील' ना-तवाँ से