नज़र तो आ कभी आँखों की रौशनी बन कर ज़मीन-ए-खुश्क को सैराब कर नमी बन कर रचा हुआ है तिरी कम निगाहियों का करम नशे की तरह मिरे दिल में सरख़ुशी बन कर कभी तो आ सितम-ए-जाँ-गुसिल ही देने को कभी गुज़र उन्ही राहों से अजनबी बन कर ख़ुशा कि और मिला ग़म का ताज़ियाना हमें ख़ुशा वो दर्द जो छाया है नग़्मगी बन कर हुई न उन से वफ़ा तुम से क्या हुआ 'नाहीद' अभी तलक जिए जाती हो बावली बन कर