कहूँ किस से रात का माजरा नए मंज़रों पे निगाह थी न किसी का दामन-ए-चाक था न किसी की तर्फ़-ए-कुलाह थी कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए न लहू मिरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ़ सियाह थी दिल-ए-कम-अलम पे वो कैफ़ियत कि ठहर सके न गुज़र सके न हज़र ही राहत-ए-रूह था न सफ़र में रामिश राह थी मिरे चार-दांग थी जल्वागर वही लज़्ज़त-ए-तलब-ए-सहर मगर इक उम्मीद-ए-शिकस्ता-पर कि मिसाल-ए-दर्द सियाह थी वो जो रात मुझ को बड़े अदब से सलाम कर के चला गया उसे क्या ख़बर मिरे दिल में भी कभी आरज़ू-ए-गुनाह थी