क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात से अहल-ए-जहाँ मफ़र नहीं ऐसी मिली है शाम-ए-ग़म जिस की कोई सहर नहीं है वो सफ़र जो इश्क़ को जानिब दोस्त ले चले वर्ना सफ़र के वास्ते कौन सी रहगुज़र नहीं अहल-ए-ख़िरद को चाहिए दिल के नगर में आ बसें दिल सा हसीन-ओ-ख़ुश-नुमा और कोई नगर नहीं तेरे करम पे है यक़ीं गरचे ये जानता हूँ मैं नाला है मेरा ना-रसा आह में कुछ असर नहीं हसरत-ए-इंतिज़ार की बात न हम से पूछिए है ये तवील दास्ताँ क़िस्सा-ए-मुख़्तसर नहीं लुट तो गए हैं दिल मगर मिल भी गई हैं मंज़िलें रहगुज़र-ए-हयात में इश्क़ सा राहबर नहीं अपना रहा न होश जब राज़-ए-हयात पा लिया नेअमत-ए-बे-खु़दी समझ होश का ये समर नहीं इश्क़ मता-ए-ला-मकाँ इश्क़ मता-ए-जावेदाँ शो'ला-ए-दाएमी है ये मंज़र-ए-यक-शरर नहीं 'दर्शन'-ए-मस्त से मिलें खोलेगा राज़-ए-आगही गरचे वहाँ है जिस जगह अपनी उसे ख़बर नहीं