राज़ ये मुझ पे आश्कारा है इश्क़ शबनम नहीं शरारा है इक निगाह-ए-करम फिर उस के बा'द उम्र भर का सितम गवारा है रक़्स में हैं जो साग़र-ओ-मीना किस की नज़रों का ये इशारा है ऐसी मंज़िल पे आ गया हूँ जहाँ तिरे ग़म का ही इक सहारा है लौट आए हैं यार के दर से वक़्त ने जब हमें पुकारा है दिल न टूटे तो ज़र्रा-ए-नाचीज़ कीमिया है जो पारा पारा है जाम-ए-रंगीं में उन का अक्स-ए-जमाल या शफ़क़ में कोई सितारा है नाव टुकड़े हुई है तूफ़ाँ से अब तो मुर्शिद का ही सहारा है इश्क़ करना है मात खा जाना उस में जीता हुआ भी हारा है अपने दर्शन पे इक निगाह-ए-करम वो ग़म-ए-ज़िंदगी का मारा है