कैफ़-ए-अदा भी है निगह-ए-पुर-फ़ितन के साथ लगती है दिल पे चोट मगर बाँकपन के साथ ख़ुनकी है चाँदनी में तमाज़त है धूप में तश्बीह किस को दें तिरे नूर-ए-बदन के साथ सर दे के सुर्ख़-रू थे कभी बंदगान-ए-इश्क़ रस्म-ए-कोहन थी ख़त्म हुई कोहकन के साथ इक मस्लहत की मोहर है लब पर लगी हुई वर्ना हज़ार शिकवे हैं अहल-ए-वतन के साथ वो शेर-ए-नग़्ज़ क्यूँ न हो जुज़्व-ए-रग-ए-हयात कुछ फ़िक्र का रचाव भी जिस में हो फ़न के साथ