ज़बान-ए-शम्अ' खुलती है न कुछ परवाना कहता है मगर सारा ज़माना बज़्म का अफ़्साना कहता है ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ क़िस्मत मेरे साक़ी की इनायत है कोई पैमाना कहता है कोई मय-ख़ाना कहता है हिजाब-ए-लाला-ओ-गुल को मह-ओ-अंजुम के पर्दे को वही कहता हूँ मैं जो जल्वा-ए-जानाना कहता है शब ग़म में जो अपने दिल से कुछ कहने को कहता हूँ तो जिस से बख़्त सो जाए वही अफ़्साना कहता है ख़ुदा कहते हैं कह लेने दो तुम अर्बाब-ए-मिल्लत को मोहब्बत तो यही कहती है जो दीवाना कहता है यही ईमान-ए-मस्ती है यही है दीन मस्तों का वही होता है जो कुछ साक़ी-ए-मय-ख़ाना कहता है यही 'कैफ़ी' यही है बे-पिए साक़ी का मतवाला क़दम मस्ताना रखता है सुख़न मस्ताना कहता है