कैफ़-ओ-सुरूर क़ल्ब के इम्कान ही गए दिल क्या गया हयात के सामान ही गए वो वारदात-ए-क़ल्ब के लम्हे फ़ना हुए वो जिन पे नाज़ था मुझे अरमान ही गए पहले तो हौसला न हुआ उन से रब्त का आख़िर हम अपने दिल का कहा मान ही गए हम ने तो दर्द-ए-दिल को ही दरमाँ बना लिया अपने किए पे आप पशेमान ही गए देखा है हम ने मौत को इतना क़रीब से इस लोमड़ी की चाल को पहचान ही गए उल्टाओ जाम बज़्म-ए-तरब मुल्तवी करो जो जान-ए-मय-कदा थे वो मेहमान ही गए फिर ले चला है जानिब-ए-मक़्तल तो चल चलें ऐ क़ल्ब-ए-ज़ार तेरा कहा मान ही गए वो और होंगे जिन को नवाज़ा जहान ने दुनिया से 'फ़ैज़' बे-सर-ओ-सामान ही गए