कैसे अमीर किस के गदा ताजदार क्या दारुल-फ़ना में जब्र है क्या इख़्तियार क्या वो तेज़ धूप है कि पिघलने लगे हैं ख़्वाब ज़ुल्फ़ों के साए देंगे फ़रेब-ए-बहार क्या आबाद कर ख़राबा-ए-ज़ेहन-ओ-ख़याल को शहरों में ढूँढता है सुकून-ओ-क़रार क्या सिमटे तो मुश्त-ए-ख़ाक है ये आदमी की ज़ात बिखरे तो फिर ये अर्सा-ए-लैल-ओ-निहार क्या मैं हूँ 'सरोश' बंदा-ए-मजबूर-ओ-ना-तवाँ मुझ में भी तेरा अक्स है परवरदिगार क्या