कैसे कहूँ कि उस का करम मुझ पे अब नहीं वो शख़्स बेवफ़ा है मगर बे-अदब नहीं मैं वो सहीफ़ा-ए-सहरी हूँ मिरे अज़ीज़ जिस के किसी वरक़ पे भी तहरीर-ए-शब नहीं निकला था जब सफ़र पे हज़ारों थे साथ में मंज़िल पे चंद लोग ही पहुँचे थे सब नहीं टकरा के मुझ से चूर हुईं सारी मुश्किलें अब कोई हादिसा भी मुबारज़-तलब नहीं मैं ने तो उन की शान में कुछ भी नहीं कहा नाराज़गी का उन की कोई भी सबब नहीं मैं ने चराग़ रख दिए हर इक फ़सील पर अर्सा हुआ कि तीरगी शिकवा ब-लब नहीं