ख़त उस ने ज़माना हुआ लिक्खा भी नहीं है वो रूठ गया मुझ से हो ऐसा भी नहीं है क्यों तल्ख़ बताया है उसे हज़रत-ए-वाइ'ज़ जिस मय को कभी आप ने चक्खा भी नहीं है वो शख़्स हुआ है मिरी बस्ती का मुहाफ़िज़ जिस शख़्स की तक़दीर में सहरा भी नहीं है अच्छा हुआ फ़नकारों ने दूकान बढ़ा दी इस शहर में अब दीदा-ए-बीना भी नहीं है जाते हैं कहाँ उठ के ज़रा बैठिए साहिब जी भर के अभी आप को देखा भी नहीं है हर राह में रौशन हैं चराग़ों की क़तारें ये ग़ौर-तलब है कि उजाला भी नहीं है अहबाब मिरे जिस तरह पेश आए हैं मुझ से दुश्मन के लिए मैं ने तो सोचा भी नहीं है ये हादसे जाएँगे कहाँ छोड़ के मुझ को इन का तो कोई और ठिकाना भी नहीं है