कैसे कटा ये शब का सफ़र देखना भी है बुझते दिए ने वक़्त-ए-सहर देखना भी है बे-नाम चाहतों का असर देखना भी है शाख़-ए-नज़र पे हुस्न-ए-समर देखना भी है अब के उसे क़रीब से छूना भी है ज़रूर पत्थर है आइना कि गुहर देखना भी है ये शहर छोड़ना है मगर उस से पेशतर उस बेवफ़ा को एक नज़र देखना भी है इन आँसुओं के साथ बसारत ही बह न जाए इतना न रो ऐ दीदा-ए-तर देखना भी है मुमकिन नहीं है उस को लगातार देखना रुक रुक के उस को देख अगर देखना भी है मंज़र है दिल-ख़राश मगर दिल का क्या करें गो देखना नहीं है मगर देखना भी है इस आस पर खड़े हैं कि इक बार 'यूसुफ़ी' उस ने ज़रा पलट के इधर देखना भी है