किस लिए चुप हूँ वज़ाहत भी नहीं कर सकता मैं मोहब्बत में शिकायत भी नहीं कर सकता एक इक कर के परिंदों ने तो हिजरत कर ली पेड़ हूँ पेड़ तो हिजरत भी नहीं कर सकता क्या मुझे साँस भी लेने की इजाज़त नहीं है क्या मैं इक और मोहब्बत भी नहीं कर सकता क्या ज़माना है कि इस अह्द-ए-ज़ियाँ में कोई शख़्स अपने बच्चों को नसीहत भी नहीं कर सकता कौन सा ख़ौफ़ रग-ओ-पै में समाया है कि अब मैं बुराई की मज़म्मत भी नहीं कर सकता अब किसी अश्क को क्या आँख में रक्खा जाए अश्क जो ग़म की हिफ़ाज़त भी नहीं कर सकता सामना हो तो ज़बाँ दिल का नहीं देती साथ कुछ बताने की मैं हिम्मत भी नहीं कर सकता सानेहा ये है उसे मुझ से जुदा होना है और सितम ये कि मैं रुख़्सत भी नहीं कर सकता