कैसे मंज़र हैं जो इदराक में आ जाते हैं जैसे मोती किसी पोशाक में आ जाते हैं मैं झटकती हूँ सभी ज़ेहन से ये वहम-ओ-गुमाँ फिर भी अक्सर ये मिरी ताक में आ जाते हैं जैसा भेजा है मुझे आप ने पैग़ाम-ए-वफ़ा ऐसे नामे तो कई डाक में आ जाते हैं अपनी हस्ती पे गुमाँ इतना न कीजे साहब पैकर-ए-ख़ाक तो फिर ख़ाक में आ जाते हैं जिन को आँखों में बसाने की इजाज़त भी नहीं वो तसव्वुर दिल-ए-बेबाक में आ जाते हैं नहीं होते हैं जो चेहरे से अयाँ रंज-ओ-अलम वो सभी सीना-ए-सद-चाक में आ जाते हैं