कैसे रखेंगे सर पे किसी का उधार हम क़र्ज़-ए-वफ़ा में करते हैं सर का शुमार हम अफ़्सोस इसी चमन में हुए बे-विक़ार हम जिस को कि चाहते रहे दीवाना-वार हम अल्फ़ाज़ मदह-ख़्वाँ थे क़लम थे बिके हुए कैसे तराश लेते कोई शाह-कार हम मिलना हमारा ख़ाक में ज़ाएअ' न जाएगा दे जाएँगे चमन को शुऊ'र-ए-बहार हम कोई सिपर बचा न सकेगी हुज़ूर को तलवार से सुख़न की करेंगे जो वार हम ऐ ज़िंदगी न हम से छुपा राज़-ए-ज़िंदगी हर साँस में हैं तेरे ही आईना-दार हम डालें अब एक और रिवायत की दाग़-बेल दुश्मन पे ऐ 'नियाज़' करें ए'तिबार हम