कैसी बुलबुल कहाँ के परवाने तुम सलामत हज़ार दीवाने हाए क्या क्या बनाए दुनिया ने इक मोहब्बत के लाख अफ़्साने तेरी बरहम निगाह के सदक़े आँख बदली हुई है दुनिया ने हम ने देखी है ज़िंदगी की बहार हम से पूछो ख़िज़ाँ के अफ़्साने इस तग़ाफ़ुल पे उन को क्या कहिए मेरे हो कर मुझे न पहचाने सारी रौनक़ थी शम-ए-महफ़िल तक अब न साक़ी न मय न परवाने लाख दाना सही मगर वाइज़ मंसब-ए-आशिक़ी को क्या जाने जिन में आज़ादी-ए-जुनूँ ही न हो मेरे क़ाबिल नहीं वो वीराने इतनी बोझल है 'ज़ब्त' ज़ुल्फ़-ए-हयात आदमिय्यत के रह गए शाने