मैं शाख़ शाख़ पे महका किरन किरन में रहा कि रूह बन के रहा मैं जिस अंजुमन में रहा असीर-ए-कश्मकश-ए-दौर-ए-पुर-मेहन में रहा वो आफ़्ताब हूँ जो मुद्दतों गहन में रहा ख़ुलूस-ए-इश्क़ की महरूमियाँ मआ'ज़-अल्लाह मैं उम्र भर तही-दामन भरे चमन में रहा निगाह महव-ए-तमाशा लबों पे मोहर-ए-सुकूत मैं आइने की तरह तेरी अंजुमन में रहा किसी से अहद-ए-मोहब्बत पे जब भी ग़ौर किया इक इर्तिआ'श सा पहरों मिरे बदन में रहा तिरे बग़ैर कहीं भी तो जी बहल न सका मैं चैन से कभी घर में रहा न बन में रहा मुहीब इतना कि वो जल्वा बर्क़-ए-तूर बना लतीफ़ इतना कि फूलों के पैरहन में रहा ज़बाँ सलीस बयाँ दिल-नवाज़ फ़िक्र जमील ये एहतिमाम हमेशा मिरे सुख़न में रहा वो दोस्तों के अज़ाएम से 'ज़ब्त' क्या बचता जो दुश्मनों की तरफ़ से भी हुस्न-ए-ज़न में रहा