क़ज़ा का राज़ है मुज़्मर जो चंद साँसों में हयात का भी तआ'रुफ़ है चार हर्फ़ों में चराग़ फ़न के जलाएँगे हम अँधेरों में शुऊ'र फ़िक्र की मशअ'ल है अपने हाथों में शब-ए-फ़िराक़ चमकने लगे दर-ओ-दीवार मह-ओ-नुजूम भी शामिल हैं मेरे अश्कों में अभी ज़माने में नमरूद की ख़ुदाई है ज़रा ख़लील तो आएँ ख़ुदा शनासों में बला-कशों ने सँभाले हैं टूटे पैमाने हुज़ूर आप कहाँ आए दिल-शिकस्तों में वो आइने के मुक़ाबिल भी रूनुमा न हुआ वो एक शख़्स जो बैठा है छुप के आँखों में नज़र नज़र है तसद्दुक़ तेरे नज़ारों पर नफ़स नफ़स है चराग़ाँ मिरी निगाहों में अगर 'हयात' ख़ज़फ़ से सदफ़ न बन जाए शुमार इस का भी होता है संग-रेज़ो में