कारज़ार-ए-ज़िंदगी में ऐसे लम्हे आ गए अज़्म-ए-मोहकम रखने वाले वक़्त से घबरा गए दूसरों के वास्ते जीते रहे मरते रहे ख़ूब-सीरत लोग थे राज़-ए-मोहब्बत पा गए बाग़ पर बिजली गिरे या नज़्र-ए-गुलचीं हो रहे आह अब सोचों के धारे इस नहज पर आ गए इस झुलसती धूप ने आख़िर कहाँ पहुँचा दिया छाँव की ख़ातिर पस-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ आ गए वाए महरूमी कि बस हम आसमाँ तकते रहे यूँ तो बादल घिर के आए हसरतें बरसा गए दिल की शादाबी की ख़ातिर दिल की तस्कीं के लिए 'रिज़वी'-ए-मुज़्तर कभी मक्का कभी मथुरा गए