क़ज़ा के साथ चले ज़िंदगी के बदले में मिली न छाँव भी अहल-ए-अमल को रस्ते में जवाब-ए-शहर-ए-ख़मोशाँ हर एक बस्ती है गुलाब खिलते नहीं अब किसी दरीचे में ग़म-ए-हयात की पैग़म्बराना उल्फ़त को न जाने कब से बसाए हुए हैं सीने में पहुँच चुके हैं यक़ीं की हुदूद में फिर भी लरज़ रहे हैं क़दम साथ साथ चलने में शुऊ'र-ए-ज़ीस्त की अल्हड़ किरन नज़र आई हयात-ए-नौ के सिमटते हुए धुँदलके में तुम्हारे क़ुर्ब की वो साअ'त-ए-हसीं अब भी रवाँ है साथ मिरे याद के सफ़ीने में हर एक साँस सू-ए-कहकशाँ बढ़ी लेकिन क़दम भटकते रहे उम्र भर अँधेरे में निकल के महबस-ए-शब-रंग से जुनूँ वाले असीर होते रहे अस्र-ए-नौ के धोके में करे जो अज़्म-ए-सफ़र उस को ये ख़बर कर दो कि इक पड़ाव हैं हम इस तवील मेले में बहा जो सुब्ह-ए-बहाराँ की जुस्तुजू में 'उमीद' उसी लहू का है परतव हर इक शगूफ़े में