कल जो दुनिया रही वो आज नहीं जिस से मिलिए वो हम-मिज़ाज नहीं अपने ज़ाहिर से अपने बातिन तक आइना दिल में कोई आज नहीं अपनी चौखट से चीख़ती देखूँ मुफ़लिसी को ज़रा भी लाज नहीं मेरे अंदर कई चराग़ जले ख़ुद-फ़ुरोज़ी तो है ख़िराज नहीं राज़ फ़ितरत के चार-सू हैं मगर सोचने का यहाँ रिवाज नहीं साथ अपने है इल्म का लश्कर लाख दुनिया के तख़्त-ओ-ताज नहीं