कल कहाँ बिचारी बुलबुल और कहाँ बेचारा गुल आज बुलबुल दीद कर ले बाग़ की नज़्ज़ारा गुल ख़ाली-अज़-शर ये चटकने की सदा हरगिज़ नहीं सुब्ह दम करता है अपने कूच का नक़्क़ारा गुल ग़ुंचा जब तक चुप रहा हर तरह ख़ातिर जम्अ' थी ख़ंदा-ए-मुफ़रत ने लेकिन कर दिया आवारा गुल ज़ाहिरा बातिन सुबुक था कुछ गिरानी आ गई हो गया बुलबुल की जानिब से जो संग-ए-ख़ारा गुल क्यूँ न गुज़रे दम-ब-दम बुलबुल का परचा ऐ 'वक़ार' रखता है बाद-ए-सबा का बाग़ में हरकारा गुल