कल मय-कदे की जानिब आहंग-ए-मोहतसिब है दरपेश मय-कशों को फिर जंग-ए-मोहतसिब है होता है शीशा-ए-दिल चूर उस की गुफ़्तुगू से यारब ये पंद-ए-नासेह या संग-ए-मोहतसिब है मुँह सुर्ख़ हो रहा है बीम-ए-मुग़ाँ से उस का जो कुछ है रंग-ए-मीना सो रंग-ए-मोहतसिब है अज़-बस गिराँ है उस पर मीना से मय की क़ुलक़ुल पढ़ना भी चार क़ुल का अब नंग-ए-मोहतसिब है हरगिज़ 'बक़ा' न रहियो दौर-ए-फ़लक से ग़ाफ़िल मस्तों की नित कमीं में सर-चंग-ए-मोहतसिब है