तशरीफ़ शब-ए-वा'दा जो वो लाए हुए हैं सर ख़म है नज़र नीची है शरमाए हुए हैं रुख़ पर जो सियह-ज़ुल्फ़ को को बिखराए हुए हैं वो चौदहवीं के चाँद हैं गहनाए हुए हैं फूलों से सिवा है बदन-ए-पाक में ख़ुशबू कब इत्र लगाने से वो इतराए हुए हैं हम्माम में जाने के लिए क्या कहिए कोई वो तो अरक़-ए-शर्म में नहलाए हुए हैं