कभी किसी को न अहद-ए-वफ़ा का पास हुआ सहर का ख़्वाब अंधेरों से रू-शनास हुआ वो एक लफ़्ज़ जो महदूद-ए-ख़लवत-कुन था वो लफ़्ज़ फैला तो मंसूर-ए-ख़ुद-शनास हुआ हमारे बा'द भी लाखों थे डूबने वाले अब इस को क्या करें दरिया ही ना-सिपास हुआ करम किसी का हद-ए-ए'तिदाल से बढ़ कर हमारे जज़्बा-ए-ख़ुद-दार की असास हुआ तलब में हम-सफ़री की लगन कहाँ फिर भी पुकार लेंगे अगर कोई आस पास हुआ उधर था लफ़्ज-ए-वफ़ा जैसे हुक्म-ए-शाहाना मिरी ज़बान पे आया तो इल्तिमास हुआ तवक़्क़ुआ'त के जादू का ज़ोर तो टूटा शिकस्त आज तिलिस्म-ए-उमीद-ओ-यास हुआ मराहिल-ए-ग़म-ए-हस्ती की उलझनें तौबा कहीं वफ़ा का कहीं ज़िंदगी का पास हुआ वो ख़ामुशी थी जो तहसीन-ए-ना-शनास हुई वो शोर था जो सुकूत-ए-सुख़न-शनास हुआ