क़ल्ब-ए-वीरान से रंगीन ग़ज़ल माँगे है कैसी दुनिया है जो सहरा से कँवल माँगे है ज़िंदगी अब तो हर इक लम्हा ख़ुदा जाने क्यूँ मुझ से पेचीदा सवालात के हल माँगे है ये नई तर्ज़-ए-सियासत ये ज़बूँ-हाली अब हम से माथे पे कुछ अफ़्कार के बल माँगे है जब से आवारा-मिज़ाजी को क़रार आया है तेरी आग़ोश में गुज़रे हुए पल माँगे है दौर-ए-हाज़िर में घरौंदा भी बनाना मुश्किल और मुम्ताज़ मिरी ताज-महल माँगे है इस जुनूँ ने मुझे इस दर्जा शरफ़ बख़्शा है बुत-गरी मुझ से अजंता का अमल माँगे है जज़्बा-ए-इश्क़ दिलों से है नदारद 'तश्ना' आशिक़ी आज की बस राह सरल माँगे है