काली रात का नख़रा देखो By Ghazal << याद आई है तिरी सख़्त मक़ा... सोज़-ए-दरूँ से जल-बुझो ले... >> काली रात का नख़रा देखो ज़ालिम कैसे इतराती है तारों का कमख़ाब पहन के चाँद को अक्सर बहकाती है तकिए पर सरगोशी रख के कान की बाली सो जाती है ज़हरीले नागों की साँसें रात की रानी महकाती है चाँद समुंदर में उतरे तो जल की मछली मर जाती है Share on: