काली ज़ुल्फ़ों में तिरी ऐसा भी क्या रक्खा है बे-सबब ढोंग सा लोगों ने रचा रक्खा है हम जो कहते हैं तुम्हें दीन-धरम शाम-ओ-सहर हम ने इक ख़ोल सा चेहरे पे चढ़ा रक्खा है हर नई ईंट से मिलता है नया इक शाइ'र हम ने अंदाज़ मगर सब से जुदा रक्खा है सुनते ही ज़िक्र गली-कूचों में माशूक़ का हम बस यही सोच के चल देते हैं क्या रक्खा है हम ने रक्खा है तुम्हें दिल में छुपा कर सब से हद है बे-सूद तुम्हें सर पे चढ़ा रक्खा है