काम हर ज़ख़्म ने मरहम का किया हो जैसे अब किसी से कोई शिकवा न गिला हो जैसे उम्र-भर इश्क़ को ग़म-दीदा न रक्खे क्यूँकर हादिसा वो कि अभी कल ही हुआ हो जैसे एक मुद्दत हुई देखा था जिसे पहले-पहल तेरे चेहरे में वही चेहरा छुपा हो जैसे हुस्न के भेद का पा लेना नहीं है आसाँ है ये वो राज़ कि राज़ों में पला हो जैसे दूर तक एक निगह जा के ठहर जाती है वक़्त का फ़ासला कुछ ढूँड रहा हो जैसे याद-ए-माज़ी से ये अफ़्सुर्दा सी रौनक़ दिल में आख़िर-ए-शब कोई दरवाज़ा खुला हो जैसे हज़्ल को लोग 'सहर' आज ग़ज़ल कहते हैं ज़ौक़-ए-शे'री पे बुरा वक़्त पड़ा हो जैसे