काम कुछ आ न सकी रस्म-ए-शनासाई भी शामिल-ए-बज़्म थी शायद मिरी तन्हाई भी काश तू अपनी तलब में कभी पहुँचे मुझ तक तेरा ही आइना है चश्म-ए-तमाशाई भी सहल मत समझो मिरे शौक़ की नाकामी को मुफ़्त मिलती है कहीं इज़्ज़त-ए-रुस्वाई भी चश्म-ए-बे-ख़्वाब में है ख़्वाब की सूरत इक शख़्स ख़ुद से ग़ाफ़िल भी है और महव-ए-ख़ुद-आराई भी ख़ैर मैं तो इसी क़ाबिल था मगर ये तो बता ज़िंदगी क्या तू किसी को कभी रास आई भी