कम-सिनी और शबाब का आलम है बुढ़ापे में ख़्वाब का आलम पाएख़ाना में देख लेता हूँ रोज़ उस बे-हिजाब का आलम मस्त आँखें थीं चाल मतवाली बे-पिए और शराब का आलम वस्ल की शब रहेगी बरसों याद और उस बे-हिजाब का आलम एक बोसे पे सैंकड़ों जूते ये जवाब-उल-जवाब का आलम वस्ल की शब में क्या करूँ तदबीर है अजब पेच-ओ-ताब का आलम उस तरफ़ तो है कम-सिनी उस की इस तरफ़ है शबाब का आलम अपने अश्कों में बह रहा हूँ मैं उफ़ ये चश्म-ए-पुर-आब का आलम ऐसी पीरी से लाख बेहतर था टूटा फूटा शबाब का आलम न गिनो बोसा वस्ल की शब में आज है बे-हिसाब का आलम है दुआ 'बूम' की हज़ारों साल रहे तुम पर शबाब का आलम