बुलबुल ख़राब-ओ-ख़्वार हुई यूँ चमन को छोड़ आवारा जूँ फिरे कोई अपने वतन को छोड़ इक रोज़ मैं ने उस बुत-ए-अय्यार से कहा लग जा गले से रोज़ के तू मक्र-ओ-फ़न को छोड़ लैला को क्या मिला न मिली क़ैस से अगर शीरीं ने क्या हुसूल किया कोहकन को छोड़ बे-ताब-ओ-बे-क़रार की होती है आह बद कहने को मेरे मान तू इस बाँकपन को छोड़ बोला कि चुटकियों में उड़ाऊँगा जब तलक उड़ जाए मुर्ग़-ए-रूह न तेरे बदन को छोड़