कमाल-ए-बे-ख़बरी को ख़बर समझते हैं तिरी निगाह को जो मो'तबर समझते हैं फ़रोग़-ए-तूर की यूँ तो हज़ार तावीलें हम इक चराग़-ए-सर-ए-रहगुज़र समझते हैं लब-ए-निगार को ज़हमत न दो ख़ुदा के लिए हम अहल-ए-शौक़ ज़बान-ए-नज़र समझते हैं जनाब-ए-शैख़ समझते हैं ख़ूब रिंदों को जनाब-ए-शैख़ को हम भी मगर समझते हैं वो ख़ाक समझेंगे राज़-ए-गुल-ओ-समन 'ताबाँ' जो रंग-ओ-बू को फ़रेब-ए-नज़र समझते हैं