कमाल-ए-शौक़-ए-सफ़र भी उधर ही जाता है किसी सफ़र का मुसाफ़िर हो घर ही जाता है वो आदमी ही तो होता है ग़म की शिद्दत से हज़ार कोशिशें कर ले बिखर ही जाता है वो हिज्र हो कि तिरे वस्ल का कोई लम्हा वो मुस्तक़िल नहीं होता गुज़र ही जाता है जो इस से पहले भी शीशे में बाल आया हो तो दिल किसी नई उल्फ़त से डर ही जाता है चढ़ा हुआ कोई दरिया हो या कि नश्शा हो 'यशब' कभी न कभी तो उतर ही जाता है