क़मर भी दूर न था कहकशाँ बुलंद न थी हमीं को फ़र्श से दूरी मगर पसंद न थी ज़रा सी आतिश-ए-ग़म से चटख़ के बुझ जाती मिरी हयात-ए-जुनूँ दाना-ए-सिपंद न थी लहू ज़मीं के शिगाफ़ों से बे-सबब फूटा फ़लक की आँख अभी माइल-ए-गज़ंद न थी यही कि पास था तक़्दीस-ए-बाम का वर्ना तलब के हाथ में क्या शौक़ की कमंद न थी हमारे हाल पे अहल-ए-जहाँ के होंटों पर हँसी न थी कोई ऐसी जो ज़हर-ख़ंद न थी शगुफ़्त-ए-गुल की सदा हो कि गिर्या-ए-शबनम जहाँ में कौन सी आवाज़ थी जो पंद न थी फ़रेब दे गई आलम को ख़ू-ए-तन्हाई मिरे जुनूँ की तबीअ'त तो ख़ुद-पसंद न थी ज़ियाँ था नाज़ मता-ए-हुनर पे ऐ 'मंज़ूर' ये चीज़ चश्म-ए-ज़माना में अर्जुमंद न थी