कमी रखता हूँ अपने काम की तकमील में मबादा आप खो जाऊँ कहीं तमसील में बहुत शिद्दत रही पहले कनार-ए-चश्म तक उमड आया है अब वो सैल रूद-ए-नील में मकान-ए-जाँ लरज़ता है हवा-ए-हिज्र से चराग़-ए-याद को रक्खेंगे किस क़िंदील में ये घड़ियाँ आह पे मुझ से गुरेज़ाँ हैं अगर तो फिर मैं क्यूँ रहूँगा वक़्त की तहवील में अज़ाब-ए-बर्क़-ओ-बाराँ था अँधेरी रात थी रवाँ थीं कश्तियाँ किस शान से इस झील में