कमरे के अँधेरों में ज़िया कौन रखेगा है मेहर-ए-वफ़ा लब पे नवा कौन रखेगा चौखट पे मिरी ला के दिया कौन रखेगा अब मेरे लिए लब पे दुआ कौन रखेगा हँसते हुए चेहरों को रुला देती हैं आँखें शादाबी-ए-मौसम की फ़ज़ा कौन रखेगा दहशत-ज़दा माहौल खड़ा पूछ रहा है सन्नाटों में पायल की सदा कौन रखेगा बारूद की बू चारों तरफ़ फैल रही है ऐसे में दरीचों को खुला कौन रखेगा हर गाम अँधेरों का सफ़र साथ है मेरे अब जिस्म से साए को जुदा कौन रखेगा धरती पे महकते हुए मौसम की रिदा को बरसात न होगी तो हरा कौन रखेगा बे-मेहर ज़माने की रिवायात में 'ख़ालिद' होंटों पे मोहब्बत की सदा कौन रखेगा