क़नाअत उम्र-भर की घर के बाम-ओ-दर पे रक्खी थी मैं ज़ेर-ए-आसमाँ था धूप मेरे सर पे रक्खी थी तअ'ज्जुब क्या जो अब भी ढूँडते हैं संग-ए-दर कोई कि हम ने इब्तिदा तहज़ीब की पत्थर पे रक्खी थी वही चेहरे लहू की गर्म-बाज़ारी में शामिल थे जिन्हों ने अपनी गर्दन बढ़ के ख़ुद ख़ंजर पे रक्खी थी मैं आशिक़ हूँ बदल डाला मुझे इश्क़-ओ-क़नाअत ने उजाला दिल में था दुनिया मिरी ठोकर पे रक्खी थी न जाने मैं कहाँ भटका किया ख़्वाबों की बस्ती में खुली जब आँख तो देखा थकन बिस्तर पे रक्खी थी मिरे बच्चों ने वो दस्तार भी जाने कहाँ रख दी बुज़ुर्गों की निशानी थी अभी तक घर पे रक्खी थी वही तहज़ीब अब हम को 'ज़िया' जीने नहीं देती कभी बुनियाद जिस की हम ने माल-ओ-ज़र पे रक्खी थी