काँटे हैं कहीं आग कहीं संग कहीं है ये राह-ए-मोहब्बत है कुछ आसान नहीं है तू पास अगर है तो हर इक चीज़ हसीं है सहरा भी निगाहों में मिरी ख़ुल्द-ए-बरीं है ता-उम्र निभाने की क़सम खाई थी तू ने वो अहद-ए-मोहब्बत भी तुझे याद नहीं है हो जाए फ़ना ज़ात-ए-ख़ुदा में जो कोई ज़ात क्या ढूँडते हो उस को मकाँ है न मकीं है ऐ हुस्न-ए-हक़ीक़त तू कभी जल्वा दिखा दे सज्दों की अमानत लिए बेताब जबीं है वो चाहे तो क़दमों में ज़माने के झुकावे कहने को तिरे दर का गदा ख़ाक-नशीं है एहसास-ए-ग़म-ए-दूरी हुआ ही नहीं मुझ को महसूस हुआ जब से कि तू दिल के क़रीं है बिखरा हुआ मयख़ाने का शीराज़ा है कब से साक़ी है कहीं मय है कहीं जाम कहीं है हैं जल्वे निगाहों में मिरी कौन-ओ-मकाँ के छुप जाए कोई मुझ से ये मुमकिन ही नहीं है क्या नज़्र करूँ गर्दिश-ए-दौराँ को 'ज़मीर' आज जीने की तमन्ना भी मिरे पास नहीं है