कर दिया ज़ार ग़म-ए-इश्क़ ने ऐसा मुझ को मौत आई भी तो बिस्तर पे न पाया मुझ को कभी जंगल कभी बस्ती में फिराया मुझ को आह क्या क्या न किया इश्क़ ने रुस्वा मुझ को दुश्मन-ए-जाँ हुआ दर-पर्दा मिरा जज़्बा-ए-इश्क़ मुँह छुपाने लगे वो जान के शैदा मुझ को रोज़-ए-रौशन हो न क्यूँकर मिरी आँखों में सियाह है तिरे गेसु-ए-शब-रंग का सौदा मुझ को इक परी-रू की मोहब्बत का मैं हूँ दीवाना न परी का न किसी जिन का है साया मुझ को रोज़-ओ-शब शोख़ ने क्या क्या न दिखाए नैरंग रुख़ दिखाया कभी गेसू-ए-चलीपा मुझ को दिन भले आए तो आ'दा सबब-ए-ख़ैर हुए बद-दुआ ने किया अग़्यार की अच्छा मुझ को फ़ख़्र से बज़्म-ए-बुताँ में वो कहा करते हैं प्यार कुछ रोज़ से अब करते हैं 'रा'ना' मुझ को