कर लिया महफ़ूज़ ख़ुद को राएगाँ होते हुए मैं ने जब देखा किसी को बद-गुमाँ होते हुए मस्लहत-कोशी मिरी फ़ितरत में शामिल ही न थी धूप में झुलसा किया मैं साएबाँ होते हुए रफ़्ता रफ़्ता रौनक़-ए-बाज़ार बढ़ती ही गई वक़्त के चेहरे पे ज़ख़्मों के निशाँ होते हुए गर यूँही जारी रहा उस के सितम का सिलसिला टूट जाऊँगा मैं इक दिन सख़्त-जाँ होते हुए ख़ुश्क होंटों के सहारे मुझ को पहचाना गया बज़्म-ए-साक़ी में हुजूम-ए-तिश्नगाँ होते हुए उस के जी में जो भी आया वो मुझे कहता रहा और मैं ख़ामोश था मुँह में ज़बाँ होते हुए देख कर ख़ुद अपनी सूरत सख़्त हैरानी हुई जब मैं गुज़रा आईनों के दरमियाँ होते हुए महव-ए-हैरत हो के 'नाज़िर' देखता ही रह गया लम्हा लम्हा अपनी साँसों का ज़ियाँ होते हुए